गाँवो की छवियाँ

Posted: Sunday, December 28, 2008 by आराधना मुक्ति in लेबल: , ,
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हमारे मन में गाँवो की छवि दो रूपों में अधिक दिखाई देती है .हम या तो इसे एक रूमानियत से भरी जगह के रूप में देखते हैं या फिर गन्दगी से भरे ऐसे स्थान के रूप में जहाँ गँवार लोग रहते हैं.हिन्दी फिल्मों ने भी इन्हीं दो रूपों को अधिक दिखाया है .यह बात समझ के परे है कि हम भारतीय गावों को उनके स्वाभाविक रूप में समझने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं.जब तक देश का आम आदमी इस बात को नहीं समझेगा,तब तक हमारे गाँव अविकसित रहेंगे .

हाशिये की आवाज़ कहाँ है ?

Posted: Saturday, December 27, 2008 by आराधना मुक्ति in लेबल: , ,
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आज हर कोई आसमान छूना चाहता है ,पर मुश्किल ये है कि पैर ज़मीं से कब उखड़ जाते हैं, उसे पता नहीं चलता. तेज़ चाल छोड़ के ज़रा चहलकदमी करें और सोचें, कहीं अपनी मिट्टी के रंग और खुशबू तो नहीं भूल गए हम ...कहीं उस ज़मीन को तो नहीं भूल गये जहाँ हम पले-बढ़े बड़े हुए...कहीं उस हाशिये को तो नहीं भूल गये हम, जिसके बल पर ये समाज विकास करता जा रहा है और पीछे छोड़ता जा रहा है उन्हें, जिनकी आवाज़ें वहाँ से केन्द्र तक पहुँचते-पहुँचते कहीं खो जाती हैं...महानगर की भीड़ में या बड़े-बड़े मॉल्स में बजते विदेशी संगीत की धुन में...या एयरकंडीशंड ऑफ़िसों के सन्नाटों में...आम आदमी की सुविधा की कीमत पर होने वाले धरना और बन्द के शोर में...हाशिये की आवाज़ कहाँ है ? सुनाई क्यों नहीं देती?