पितृसत्ता :एक अवलोकन

Posted: Monday, March 29, 2010 by mukti in लेबल:
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पितृसत्ता का तात्पर्य आमतौर पर पुरुष-प्रधान समाज से लिया जाता है,जिसमें सम्पत्ति का उत्तराधिकार पिता से पुत्र को प्राप्त होता है. परन्तु नारीवादी दृष्टि से पितृसत्ता की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है. यह मात्र पुरुषों के वर्चस्व से सम्बन्धित नहीं है, अपितु इसका सम्बन्ध उस सामाजिक ढाँचे से है, जिसके अन्तर्गत सत्ता सदैव शक्तिशाली के हाथ में होती है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. इस प्रकार पितृसत्तात्मक विचारधारा स्त्री और पुरुष दोनों को प्रभावित करती है.
पितृसत्ता के इस अर्थ को समझ लेने पर हम उस आक्षेप का स्पष्टीकरण दे सकते हैं,जिसके अनुसार कहा जाता है "नारी ही नारी की दुश्मन होती है." इस सन्दर्भ में ग़ौर करने लायक बात यह है कि कोई भी सीधी-सादी और कमज़ोर स्त्री दूसरी स्त्री पर अत्याचार नहीं करती. ऐसा करने वाली स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक विचारधारा से प्रभावित होती हैं, वे ख़ुद को श्रेष्ठ समझती हैं और दूसरी औरतों को नीचा दिखाने की कोशिश करती हैं.
 हमारे समाज को ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज कहा जाता है क्योंकि यहाँ जाति-व्यवस्था समाज के ढाँचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो कि भारतीय समाज को एक पद-सोपानीय स्वरूप प्रदान करता है. इस क्रम में सवर्ण पुरुष सबसे ऊपर के पायदान पर स्थित होता है और दलित स्त्री सबसे निचले क्रम पर. पितृसत्तात्मक व्यवस्था की यह महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह समाज के प्रत्येक सदस्य को एक समान न मानकर ऊँचा या नीचा स्थान प्रदान करती है.
इस प्रकार पितृसत्तात्मक व्यवस्था लोकतान्त्रिक मूल्यों के सर्वथा विपरीत है, जिसमें जाति, लिंग, वर्ण, वर्ग, धर्म आदि के भेद से ऊपर "एक व्यक्ति, एक मत" के सिद्धांत को अपनाकर मानवीय गरिमा को सर्वोपरि माना गया है. पितृसत्ता को पहचानकर उसका गहराई से विश्लेषण करना तथा उसका सही स्वरूप सामने लाना नारीवादी आन्दोलन का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है.